मृत्यु क्या है और क्या है जीवन ? मौत से डरें नहीं यही तो है निश्चित


लखनऊ। बीते तेरह महीनों में जीवन कैसे बदल गया है। हर चीज में लापरवाही बरतने वाले मानव की जिंदगी कैसे एक अज्ञात भय की आशंका में डरी सहमी सी व्यतीत हो रही है। कोरोना के इलाज के नाम पर अभी तक नतीजा शून्य ही है। कहने को वैक्सीन तो मार्केट में आ गई है। मगर समय समय पर इसकी विश्वसनीयता पर संदेह वाली खबरें चिंता उत्पन्न करती हैं। आंकलन रोज गलत साबित हो रहे हैं। कई शोधकर्ताओं ने तो अब कोरोना के साथ ही जीवन बिताने की आशंका जाहिर की है। और कहीं न कहीं उनकी आशंका गलत नहीं है क्योंकि जिस बीमारी का इलाज ही नहीं उसके साथ ही तो जीना पड़ेगा।

हम डर क्यों रहे हैं। इसलिए न कि कहीं हम मर न जाएं। मृत्यु है क्या? और क्या है जीवन? जरा ध्यान  दीजिएगा क्योंकि पूरी जिंदगी हम इसी ओर ध्यान नहीं देते। जबकि असली ध्यान इसी पर होना चाहिए। देखिए, ये जो सांस हम ले रहे हैं। नाक से अंदर जाती है। फेफड़े इसमें से अॉक्सीजन छान लेते हैं। फिर ये हृदय में जाती है। हृदय इस अॉक्सीजन को रक्त की बूंदों में मिलाकर नसों शिराओं के माध्यम  से शरीर के अंग प्रत्यंग में, एक एक कोशिका में पहुंचाता है। ये अॉक्सीजन (O2) जिसे हम सनातन परंपरा में प्राण वायु कहते हैं। यही आत्म तत्व है। शरीर के अंदर ये एक निश्चित परिमाण में रहता है तो आत्मा है। हमारे चारों ओर वायुमंडल में ये बड़े परिमाण में है तो परम आत्मा है। आत्मा/अॉक्सीजन ऊर्जा है। ये नष्ट नहीं होती। बस रूप बदलती है। सांस के जरिए ये शरीर में जाती है और शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा प्रदान करते हुए अपने साथ कार्बन जो नकारात्मक तत्व है, को लेकर बाहर आती है (co2)। शरीर के जिस कोशिका तक अॉक्सीजन नहीं पहुंच पाती तो कोशिका मृत कहलाती है। इसी तरह जब शरीर में इसके आवागमन का सिलसिला किन्ही कारणों से बाधित होता है तो वह घटित होता है जिसे मृत्यु कहते हैं। एक स्वस्थ और सानंद जीवन के लिए एक निश्चित मात्रा में अॉक्सीजन यानी प्राण वायु की अनिवार्यता है। उससे कम या अधिक होने पर विभिन्न बीमारियां होती हैं। जो जीवन पर संकट कारक होती हैं। इसके लिए प्राणायाम एवं व्यायाम और शुद्ध चिंतन व भोजन का संतुलन अत्यावश्यक है। कभी दुर्घटना आदि होने पर चिकित्सक कहते हैं कि अधिक रक्त स्राव होने की वजह से मृत्यु हुई जबकि वस्तुत: रक्त के साथ जीवन के आवश्यक तत्व अॉक्सीजन के बह जाने से मृत्यु होती है। शरीर में सारे अंग काम करें और हृदय न काम करे तो शरीर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जबकि पूरा शरीर निष्क्रिय हो जाय लेकिन हृदय काम कर रहा हो तो दुनिया का कोई भी डाक्टर आपको कोमा में जाना बताएगा न कि आपकी मृत्यु होना बताएगा। दुर्भाग्यवश मूर्ख मानव जाति ने पिछले पांच सौ वर्षों में अपनी लालच और हवस के चलते कथित कृत्रिम अत्याधुनिक विकास के नाम पर पृथ्वी के परम तत्व को दूषित करने का काम किया है। जीवन दायक जल H2Oहो, प्राण वायु O2 हो या रक्षक ओजोन O3 हो। दुष्ट मानव ने इनको प्रदूषित/क्षरण करने का ही काम किया है।‌

मनुष्य के साथ ये सबसे बड़ी दिक्कत है। वह सत्य को स्वीकार नहीं करता। जबकि सभी जानते हैं कि मृत्यु ही अंतिम सत्य है, शाश्वत सत्य है मृत्यु। हमारी सनातन परंपरा में इसका विस्तृत वर्णन है। जिसने शरीर धारण किया है उसे शरीर छोड़ना ही होगा। मानव तो मानव जो अवतार भी हुए उन्हें देह त्यागनी पड़ी। और ये भी सत्य है कि हम साधारण मनुष्य ये नहीं जान सकते कि हमारी मृत्यु कब होगी, कैसे होगी, कौन जानता है कि अगले मिनट वाली उसकी सांस पूरी होगी ही। हो सकता है कि अगली सांस ही अंतिम सांस साबित हो। और ये सत्य तो पृथ्वी पर जीवन के आरंभ से ही यानि करोड़ों वर्षों से साथ चला आ रहा है। कोरोना तो अब आया है। सनातन परंपरा के अवतारों, ऋषियों मुनियों, योगियों साधकों, की ही तरह दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न धर्मों के प्रवर्तकों ने भी मौत को निश्चित और इसके समय व कारण को अनिश्चित बताया है। तो फिर ये भय और अफरातफरी का आलम क्यों? 

दरअसल बीते पांच सौ वर्षों में मनुष्य में आत्मचेतना का क्षरण ही हुआ है। आत्म जागरुकता के अभाव में मनुष्य अपने अपने देवी देवताओं अवतारों और गुरुओं को तो मानता है उनकी पूजा करता है मगर उनकी कही हुई बातों को नहीं मानता। यही वजह है मनुष्य स्वयं उत्पन्न किये गये जंजालों में उलझ गया है। अत्याधुनिक विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य अपने मूल से कट गया है। मनुष्य का मूल उसका शरीर नहीं है, आत्मा है। आत्मा क्या है, परमात्मा का ही अंश है। परमात्मा क्या है, इस पर व्यापक चर्चा हो सकती है। फिलहाल हम ये मानकर चलते हैं कि परमात्मा प्रकृति में ही व्याप्त, कण कण में व्यक्त है। जब हम आत्म चेतना को प्राप्त कर लेते हैं तो परमात्मा को जानने समझने लगते हैं। जानने लगते हैं कि परमात्मा कैसे कार्यान्वित है, हमारे अंदर और बाहर। परमात्मा की इच्छा से हमने शरीर धारण किया है एक आनंदपूर्वक जीवन जीते हुए अपनी उत्क्रांति यानि कि मोक्ष को प्राप्त करने के लिए। 

तो हम मृत्यु से भयभीत न हों। ये मानकर चलें कि अगला पांच मिनट ही हमारा अंतिम समय है। इस पांच मिनट का सदुपयोग इस तरह करें कि शरीर छोड़ते समय कष्ट न हो।  अपना चित्त अपने सहस्रार चक्र (सिर के तालू भाग पर) स्थिर रखें। उन सबको माफ कर दें जिनसे आपके प्रति कभी कोई अपराध हुआ हो। उन सबसे माफी मांग लें जिनके प्रति आपसे कोई गलती हुई है। ये प्रक्रिया सीधे कर लें बगैर संकोच के तो बहुत अच्छा, नहीं तो शुद्ध हृदय से मन में कर लें। ये भी कार्यान्वित होता है। परमात्मा से भी अपने किये की माफी मांग लें और उनसे प्रार्थना करें कि जो भी गलती हुई उसे अब नहीं दोहराऊंगा। परमात्मा के प्रति अपना समर्पण व्यक्त करें। इस प्रक्रिया को मन ही मन साध लें तो ये आपके कर्मों में उतर आएगी। फिर जो परिवर्तन आपके अंदर और बाहर आएगा उसे न सिर्फ आप बल्कि आपके आसपास के लोग धीरे धीरे पूरी दुनिया देखेगी और महसूस करेगी। और इसके लिए तो आपको किसी पर निर्भर भी नहीं होना है। ये तो आप ही को करना है। फिर क्या फर्क पड़ता है कि आप पांच मिनट जी रहे हैं कि पांच दिन, पांच साल या पांच सौ साल। फिर क्या फर्क पड़ता है कि आपके शरीर छोड़ने का कारण कोरोना है या कोई अन्य बीमारी या कोई घटना दुर्घटना।

और यही जीवन शैली तो #नवयोग है। जब तक जीयें आनंदपूर्वक जीयें और जब मृत्यु से सामना हो तो आनंदपूर्वक सहस्रार के मार्ग से शरीर का त्याग करें। अंत इन दो मशहूर लाइनों के साथ कि...

"जिंदगी तो बेवफा है एक दिन ठुकराएगी

मौत महबूबा है मेरी साथ लेकर जाएगी"

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राजीव तिवारी 'बाबा'

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं आध्यात्मिक चिंतक हैं और ये लेखक के निजी विचार है)